भारत और चीन के बीच जल विवाद का मुद्दा वर्षों से चर्चा का विषय रहा है, लेकिन हाल ही में यह चिंता का कारण इसलिए बनता जा रहा है क्योंकि चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँधों और जल परियोजनाओं को बढ़ा रहा है। वहीं दूसरी ओर, विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान के साथ सिंधु नदी जल बंटवारे में भारत की स्थिति कहीं ज्यादा निर्णायक और प्रभावशाली है।
🔹 ब्रह्मपुत्र नदी: जल स्रोत पर चीन का प्रभुत्व
ब्रह्मपुत्र नदी, जिसे चीन में यारलुंग त्सांगपो के नाम से जाना जाता है, तिब्बत के पठार से निकलती है और भारत होते हुए बांग्लादेश में प्रवेश करती है। यह नदी भारत के पूर्वोत्तर राज्यों, विशेषकर अरुणाचल प्रदेश और असम के लिए जीवनरेखा मानी जाती है।
चीन ने तिब्बत क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र पर कई जलविद्युत परियोजनाएं आरंभ की हैं। इनमें से कुछ परियोजनाओं में पानी के संग्रह की योजना है, जो नीचे की ओर बहने वाले जल पर असर डाल सकती है। भारत ने कई बार इस पर चिंता जताई है, क्योंकि इससे असम और पूर्वोत्तर भारत में सूखे या बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा उत्पन्न हो सकता है।
हालांकि, विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन द्वारा किए जा रहे निर्माण कार्य अभी तक केवल रन-ऑफ-द-रिवर परियोजनाएं हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य बिजली उत्पादन है, न कि नदी के जल को मोड़ना। इसके बावजूद, भविष्य की अनिश्चितताओं और पारदर्शिता की कमी से भारत की चिंता वाजिब है।
🔹 सिंधु जल संधि: भारत के पास मजबूत विकल्प
वहीं दूसरी ओर भारत और पाकिस्तान के बीच जल बंटवारा 1960 की सिंधु जल संधि के तहत हुआ था। यह संधि विश्व बैंक की मध्यस्थता में हुई थी, जिसके तहत भारत को पूर्वी नदियाँ – रावी, ब्यास और सतलज, और पाकिस्तान को पश्चिमी नदियाँ – सिंधु, झेलम और चेनाब मिली थीं।
हालांकि भारत को पश्चिमी नदियों के कुछ जल का सीमित उपयोग सिंचाई, बिजली उत्पादन और घरेलू इस्तेमाल के लिए करने की अनुमति है। इन प्रावधानों का भारत ने पिछले कुछ वर्षों में अधिकाधिक उपयोग करना शुरू किया है। पुलवामा हमले के बाद भारत ने कहा था कि वह पाकिस्तान की ओर बहने वाले जल का अधिकतम उपयोग करेगा।
भारत सिंधु प्रणाली पर कई नई परियोजनाएँ बना रहा है जैसे कि किशनगंगा और रैटले बाँध। इससे पाकिस्तान चिंतित है कि भारत पश्चिमी नदियों के प्रवाह को नियंत्रित कर सकता है, जिससे पाकिस्तान की कृषि और पीने के पानी की आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।
🔹 विशेषज्ञों की राय: चीन से अधिक पाकिस्तान पर असर
विश्लेषकों का मानना है कि ब्रह्मपुत्र पर चीन की गतिविधियाँ भारत के लिए चिंता का विषय अवश्य हैं, लेकिन फिलहाल वह खतरा सीमित है क्योंकि नदी की ऊंचाई, भूगोल और पानी की मात्रा इतनी अधिक है कि चीन का पूर्ण नियंत्रण व्यवहारिक नहीं है।
इसके विपरीत, भारत का सिंधु नदी प्रणाली पर कानूनी और भौगोलिक अधिकार कहीं अधिक मजबूत है। अगर भारत सिंधु जल संधि के अंतर्गत अपने अधिकारों का पूरा उपयोग करता है, तो पाकिस्तान की जल आपूर्ति में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। इससे पाकिस्तान की कृषि व्यवस्था और पेयजल संकट गहरा सकता है।
🔹 समाधान और आगे की राह
भारत और चीन के बीच ब्रह्मपुत्र पर कोई औपचारिक जल संधि नहीं है, लेकिन दोनों देशों ने जल आंकड़ों के आदान-प्रदान को लेकर कुछ समझौते किए हैं। भारत को चाहिए कि वह चीन के साथ इस मुद्दे पर संवाद बनाए रखे और दक्षिण एशिया में जल कूटनीति को मज़बूती से आगे बढ़ाए।
वहीं पाकिस्तान के साथ भारत को सिंधु जल संधि के अंतर्गत मिले अधिकारों का रणनीतिक रूप से उपयोग करना चाहिए। साथ ही, घरेलू जल संरक्षण, सिंचाई तकनीक में सुधार और जल संसाधन प्रबंधन में नवाचार को बढ़ावा देना समय की मांग है।
भारत–चीन ब्रह्मपुत्र विवाद भले ही सामरिक चिंता का विषय हो, लेकिन भारत का पाकिस्तान के साथ सिंधु जल पर नियंत्रण कहीं अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली है। इस नियंत्रण का रणनीतिक उपयोग भारत के लिए एक प्रभावी उपकरण बन सकता है – चाहे वह कूटनीति हो, सुरक्षा नीति या जल संसाधन प्रबंधन।
🔹 जल को “रणनीतिक हथियार” के रूप में देखना
दुनिया भर में जल को अब केवल एक प्राकृतिक संसाधन नहीं माना जाता, बल्कि यह रणनीतिक हथियार और भू-राजनीतिक उपकरण बन चुका है। चीन और पाकिस्तान दोनों ही भारत के पड़ोसी और प्रतिस्पर्धी हैं। इन दोनों देशों के साथ भारत की सीमाओं पर सैन्य और राजनीतिक तनाव समय-समय पर बढ़ते रहे हैं। ऐसे में जल संसाधन नियंत्रण एक ‘सॉफ्ट पावर’ की तरह कार्य कर सकता है।
भारत, जो एक ऊँचाई पर स्थित देश है और अधिकतर नदियों का स्रोत है, वह स्वाभाविक रूप से एक जल-प्रधान राष्ट्र है। इससे भारत को यह शक्ति मिलती है कि वह जल प्रवाह को विनियमित कर सके – बशर्ते वह अंतरराष्ट्रीय नियमों और संधियों के दायरे में रहे।
🔹 ब्रह्मपुत्र पर चीन की योजनाएं और भारत की रणनीति
चीन ने हाल ही में घोषणा की है कि वह तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र) पर एक विशाल मेगा-डैम बनाएगा। यह परियोजना दुनिया की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं में से एक मानी जा रही है। इसका प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि बांग्लादेश तक पड़ेगा।
भारत के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि वह न केवल डैम निर्माण पर निगरानी रखे, बल्कि खुद भी पूर्वोत्तर में जल परियोजनाओं पर तेजी से काम करे, जिससे उसका अपस्ट्रीम काउंटर बैलेंस बना रहे।
भारत ने अरुणाचल प्रदेश और असम में भी छोटे-बड़े जलविद्युत परियोजनाओं की योजना बनाई है, जिससे वह चीन को यह संकेत दे सके कि वह जल नीति के मोर्चे पर भी तैयार है।
🔹 पाकिस्तान की जल निर्भरता: भारत के लिए लाभ की स्थिति
पाकिस्तान की 80% से अधिक कृषि भूमि सिंधु प्रणाली पर निर्भर है। इसके अलावा, पाकिस्तान के कई बड़े शहरों की पेयजल आपूर्ति भी इन्हीं नदियों से होती है। भारत यदि सिंधु जल संधि के अंतर्गत मिलने वाले जल उपयोग अधिकारों का अधिकतम इस्तेमाल करता है, तो वह बिना संधि तोड़े भी पाकिस्तान पर रणनीतिक दबाव बना सकता है।
उदाहरण के लिए:
किशनगंगा परियोजना: झेलम की सहायक नदी पर है और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के बावजूद भारत ने इसे पूरा किया।
पकल डुल, रैटले और सावलकोट परियोजनाएं: ये परियोजनाएं बिजली उत्पादन के साथ-साथ भारत को जल नियंत्रण की शक्ति देती हैं।
🔹 जल कूटनीति: भविष्य की नीति
भारत को अपने पड़ोसियों के साथ “जल संवाद” और सहयोग बढ़ाने की जरूरत है, ताकि यह मुद्दा टकराव की जगह सहयोग का कारण बने। कुछ सुझाव:
ब्रह्मपुत्र पर त्रिपक्षीय समझौता (भारत–चीन–बांग्लादेश) – ताकि डाटा साझा करने और जल प्रबंधन में पारदर्शिता बढ़े।
सिंधु जल संधि की पुनर्समीक्षा – कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह संधि अब पुरानी हो चुकी है और भारत को इसमें संशोधन की मांग करनी चाहिए।
अंतर-राज्यीय जल संरक्षण नीति – भारत के भीतर भी जल संसाधनों को राज्य के बजाय राष्ट्रीय दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है।
🔚 अंतिम विचार
जल सिर्फ जीवन नहीं है, अब यह नीति और सुरक्षा का मुद्दा बन चुका है। भारत को चाहिए कि वह:
चीन के साथ सतर्कता और संतुलन बनाए रखे।
पाकिस्तान के साथ विधिक और रणनीतिक लाभ का समुचित उपयोग करे।
घरेलू स्तर पर जल संरक्षण और परियोजना प्रबंधन में पारदर्शिता और तकनीकी दक्षता लाए।
आज जब जल संकट वैश्विक रूप ले चुका है, तो भारत को अपने सभी जलस्रोतों को नीति, विज्ञान और कूटनीति के संतुलन से संभालना होगा।
क्या आप मानते हैं कि भारत को सिंधु जल संधि में संशोधन की पहल करनी चाहिए? या चीन के साथ औपचारिक जल समझौता आवश्यक है? अपनी राय नीचे कमेंट में ज़रूर साझा करें।
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