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स्वास्थ्य-सुविधाओं में आत्मनिर्भरता: सही पहल लेकिन गुणवत्ता निगरानी ज़रूरी है

भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में बीते कुछ वर्षों में कई बदलाव देखे गए हैं। खासकर महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में जब स्थानीय अस्पतालों को दवाओं की आपूर्ति, उपकरण ख़रीद या बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर आत्मनिर्भर बनने की अनुमति दी गई, तो इसे एक स्वागत योग्य निर्णय माना गया। लेकिन आत्मनिर्भरता की इस पहल में एक चुनौती छिपी हुई है — गुणवत्ता नियंत्रण और निगरानी की।

एक ओर यह प्रणाली सरकारी तंत्र की धीमी प्रक्रियाओं से छुटकारा दिलाती है, वहीं दूसरी ओर यदि इस पर सख्त निगरानी न हो, तो यह भ्रष्टाचार, घटिया दवाओं की आपूर्ति, और जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ में बदल सकती है। आइए विस्तार से समझते हैं इस नीति के फ़ायदे, संभावनाएं और ज़रूरी सुधार।

1. आत्मनिर्भरता की आवश्यकता क्यों पड़ी?
राज्य और जिला स्तरीय अस्पतालों को दवा या अन्य मेडिकल संसाधनों के लिए केंद्रीय खरीद प्रणाली पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे अक्सर देरी होती है, और कभी-कभी ज़रूरत की चीज़ें समय पर नहीं पहुंच पातीं।

मुद्दे:

बायोमेडिकल उपकरण महीनों तक लंबित

जीवन रक्षक दवाएं स्टॉक में नहीं

आपातकाल में स्थानीय खरीद पर रोक

ऐसे में स्थानीय अस्पतालों को कुछ हद तक खुद निर्णय लेने और लोकल वेंडर से सीधे खरीदी की इजाज़त देना नीतिगत रूप से मजबूत निर्णय था।

2. इस नीति से क्या फायदे मिल सकते हैं?
✔️ त्वरित सेवाएं
स्थानीय स्तर पर आपूर्ति की मंजूरी से मरीजों को समय पर इलाज मिल सकेगा।

✔️ मरीजों पर बोझ कम होगा
सरकारी दवाएं उपलब्ध न होने पर मरीजों को महंगी बाज़ारू दवाएं खरीदनी पड़ती थीं, अब यह बोझ कम हो सकता है।

✔️ अस्पतालों की ज़िम्मेदारी तय होगी
अब हर अस्पताल को दवा, उपकरण और सुविधा की जिम्मेदारी खुद उठानी होगी – इससे प्रशासनिक जवाबदेही बढ़ेगी।

3. लेकिन क्या खतरे भी हैं?
आत्मनिर्भरता के साथ भ्रष्टाचार और घटिया माल की आपूर्ति का खतरा सबसे बड़ा है।

⚠️ गुणवत्ता पर सवाल
स्थानीय स्तर पर दवा की खरीद में यह सुनिश्चित करना कठिन हो सकता है कि वे सभी दवाएं गुणवत्ता मानकों पर खरी उतरती हैं या नहीं।

⚠️ मुनाफाखोरी
स्थानीय ठेकेदार उच्च दामों पर दवा बेच सकते हैं, खासकर तब जब अस्पतालों को तात्कालिक ज़रूरत हो।

⚠️ ट्रांसपेरेंसी की कमी
अस्पताल स्तर पर खरीद की प्रक्रिया कितनी पारदर्शी होगी, यह बड़ा सवाल है। बिना सशक्त मॉनिटरिंग प्रणाली के यह नीति विफल हो सकती है।

4. गुणवत्ता निगरानी कैसे सुनिश्चित हो सकती है?
स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता का सीधा संबंध मानव जीवन से है। अतः कुछ ज़रूरी उपायों से नीति को सफल बनाया जा सकता है:

✅ मेडिकल ग्रेड सर्टिफिकेशन अनिवार्य
हर खरीदी गई दवा/उपकरण पर मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं से प्रमाण पत्र होना अनिवार्य किया जाए।

✅ सेंट्रल डिजिटल पोर्टल
राज्य स्तर पर एक डिजिटल पोर्टल बनाया जाए, जहां हर अस्पताल की खरीदी का रिकॉर्ड अपलोड हो – कीमत, मात्रा, सप्लायर का नाम, बिल इत्यादि।

✅ समय-समय पर ऑडिट
स्वतंत्र एजेंसियों से हर छह महीने में ऑडिट करवाया जाए – विशेषकर बायोमेडिकल खरीद का।

✅ शिकायत निवारण तंत्र
जनता और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को यदि कोई गड़बड़ी दिखे, तो वे शिकायत दर्ज कर सकें — ऐसी प्रणाली आवश्यक है।

5. नीति से जुड़ी कुछ सकारात्मक उदाहरण
🏥 नागपुर मेडिकल कॉलेज
यहां पर एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत ICU में वेंटिलेटर की तत्काल खरीद की गई और उसका उपयोग तुरंत शुरू हो गया। मरीजों को बेड की उपलब्धता बढ़ी और इलाज में देरी कम हुई।

🏥 पुणे ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र
स्थानीय आपूर्ति के कारण डिलीवरी किट्स समय पर मिलीं और प्रसव में मातृ मृत्यु दर में कमी दर्ज की गई।

6. जनता और मीडिया की भूमिका
इस नई प्रणाली की सफलता के लिए सिविल सोसाइटी, पत्रकारों और RTI कार्यकर्ताओं की निगरानी बहुत ज़रूरी है। जितनी अधिक सामाजिक भागीदारी होगी, उतनी ही नीतियां पारदर्शी और प्रभावशाली होंगी।

7. निष्कर्ष: नीति सही, निगरानी ज़रूरी
महाराष्ट्र सरकार की यह पहल स्वास्थ्य सेवाओं में नई दिशा देने वाली है। यदि इसे सही ढंग से लागू किया गया, तो यह स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार ला सकती है।

लेकिन यह तभी संभव है जब –
हर खरीद गुणवत्तापूर्ण और प्रमाणित हो,
हर लेन-देन पारदर्शी हो,
और हर जिम्मेदारी तय की जाए।
आत्मनिर्भरता कोई अंतिम समाधान नहीं, बल्कि एक शुरुआत है – जहाँ निगरानी, पारदर्शिता और जवाबदेही ही इसे सशक्त बनाएगी।
यदि आप किसी अस्पताल में इलाज के दौरान दवा की उपलब्धता या गुणवत्ता को लेकर अनुभव साझा करना चाहते हैं, तो नीचे कमेंट ज़रूर करें। आपकी भागीदारी से ही हम इस नीति पर वास्तविक संवाद बना सकते हैं।

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